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भूख से बड़ा पुण्य: पंडित जी की अद्भुत बलिदान की कहानी | अनिरुद्धाचार्य जी महाराज
एक बार एक राजा था, एक पंडित जी और एक पंडिता थीं। पंडित जी इतने गरीब थे कि उनके पास खाने के लिए रोटी भी नहीं थी। एक दिन पंडिता ने कहा, “अब तो देखो, कल का हमारे पास कोई बंदोबस्त नहीं है। क्या करें, कल भोजन नहीं बनेगा।” पंडित जी भिक्षा मांगकर लाते थे, लेकिन उन्हें भिक्षा भी नहीं मिलती थी। पंडिता ने सुझाव दिया, “एक काम करो, जो आपने पुण्य किए हैं, जाओ। यहां का राजा लोगों के पुण्य खरीदता है।
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जाओ और अपने पुण्य बेचकर कुछ पैसे ले आओ।” पंडित जी राजा के पास पुण्य बेचने के लिए चले गए। पंडितान ने चार रोटियां बनाई और अचार रखा। उन्होंने पंडित जी से कहा, “रास्ते में भूख लगे तो ये चार रोटियां और अचार खा लेना।” पंडित जी राजा के पास जाने लगे। राजा का दरबार थोड़ी दूर था और उन्हें कई किलोमीटर चलना था। जब पंडित जी एक जंगल से गुजरे, तो वह नदी के किनारे बैठ गए और रोटियां निकालकर खाने वाले थे। तभी एक बूढ़ी सी गाय, जो बिल्कुल पतली और दुबली थी, जंगल से आई और पंडित जी की तरफ देखने लगी।
पंडित जी ने पहली रोटी गाय की तरफ डाल दी। गाय ने फटाफट रोटी खाई और फिर भी वह पंडित जी की तरफ बढ़ रही थी क्योंकि वह बहुत भूखी थी। पंडित जी ने दूसरी रोटी भी गाय को दे दी। उन्हें खुद भी भूख लग रही थी, लेकिन गाय का पेट भरा नहीं था, इसलिए उन्होंने तीसरी रोटी भी डाल दी। गाय की आंखों से आंसू बह रहे थे, यह देखकर पंडित जी को लगा कि वह बहुत भूखी है, इसलिए उन्होंने चौथी रोटी भी उसे दे दी। पास में थोड़ी हरी घास थी, उसे तोड़कर गाय को दी। गाय ने खाया और पानी पीकर चली गई। अब पंडित जी के पास रोटियां नहीं बची थीं, केवल अचार बचा था जिसे उन्होंने थोड़ा चूस लिया और नदी का पानी पीकर राजा के दरबार पहुंचे।
राजा से मिलने पर उन्होंने कहा, “महाराज, मैं पुण्य बेचने आया हूं। मैंने जो पुण्य किए हैं उनमें से कुछ पुण्य बेचूंगा ताकि मेरी दाल-रोटी चल सके।” राजा ने कहा, “लाओ, मैं आपके पुण्य खरीदता हूं।” राजा की पत्नी बहुत पतिव्रता थीं और उन्होंने कहा, “महाराज, बताइए इसका कौन सा पुण्य खरीदा जाए?” रानी ने तुरंत पहचान लिया कि पंडित जी ने कुछ घंटे पहले गाय को चार रोटियां खवाई हैं। रानी ने कहा, “इसने अभी-अभी गाय को चार रोटियां खिलाई हैं, वही पुण्य खरीद लो।” राजा ने कहा, “क्या आप अपने चार रोटियों का पुण्य देना चाहेंगे?” एक तराजू बांधा गया और उसके एक पलड़े पर राजा ने चार रोटियों का पुण्य रखा और दूसरे पलड़े पर हीरे-मोती रखे।
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राजा ने अपनी सारी दौलत उस पलड़े पर लटका दी लेकिन चार रोटियों का पुण्य उस दौलत के सामने कम नहीं पड़ा। जब ब्राह्मण ने देखा तो उसने कहा कि “भाई राजा की दौलत कम पड़ गई मेरे पुण्य के आगे!” ब्राह्मण बोले, “अच्छा अब मैं कोई पुण्य नहीं बेच रहा हूं!” राजा अपनी पत्नी से बोले कि “देवी, आखिर चार रोटियां हम तो रोज ऐसी ही दान करते हैं! इतना पुण्य होता है क्या?” रानी ने कहा कि “महाराज, यह ब्राह्मण ने चार रोटियां तब दीं जब यह खुद भूखा था।
आपका पेट भरा हो तो आप किसी और का पेट भर दें; इसमें आश्चर्य नहीं है लेकिन जब आपका पेट खाली है और आप अपने हिस्से की रोटियां किसी भूखे को दे देते हैं तो इससे बड़ा कोई पुण्य नहीं होता!” इसलिए इस घटना से यह स्पष्ट होता है कि वास्तविक पुण्य तब मिलता है जब हम अपनी जरूरतों को नजरअंदाज करके दूसरों की सहायता करते हैं।